सुबह सुबह उठ जब
खिड़की के बाहर मेरी नजर गिरी,
तो महसूस हुआ कि
कुछ तो बदल गया है
और तभी बाहर से आवाज आयी,
"कुछ नहीं, बहुत कुछ बदल गया है"
रास्ते में न ही शोर शराबा था,
न ही कोई कुड़ा गिरा पड़ा था
सुनाई दे रहा था तो बस
पंछियों की किलकारियाँ
और बहती हवा की चुपचाप सी हँसी;
रोजनामों का तो कहीं अता पता न था,
सो टीवी के खबरियों के वजह से
दुनिया का हाल पता चल पा रहा था
जहां एक और आदम जात में
हाहाकार मच रहा था,
वहीँ जानवरों के बीच
एक उमंग सी थी छायी हुई
जो भूरे रंग के दिखते थे कभी,
वो नदियां
आज आहिस्ते आहिस्ते साफ़ हो रहे हैं
मायूस हो गए थे जंगल जो सभी
आज खुशी से खिलखिला रहे हैं
जिन्हें वक्त नहीं मिलता था कभी
वो आज अपनों के साथ
कभी खुशी कभी ग़म बांट रहे हैं;
जिसने नमक की डिब्बी को
हाथ भी न लगाया था
वो आज रसोई में
कभी गवेषणा कर रही है या
कभी कभी मम्मी का हाथ बटा रही है
ऑनलाइन कहानियाँ सुनना छोड़
दादी की कहानियां अब भाने लगी हैं
दादाजी और पापा से बात कर अभी
मेरे दिमाग की खिड़कियां खुलने लगी हैं
ये बीमारी जो फैली है चारों ओर
है बड़ा ही खतरनाक, ये सच है
पर इस बीमारी ने प्रकृति और इंसानियत
दोनों का मैल वाकई मिटाकर,
ये अभिशाप के साथ साथ एक वरदान भी है
ये भी एक अनोखा सच है।
Creation by - Shibangi Das
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